शनिवार, 25 दिसंबर 2010

थोड़ी देर और बैठो तुम



थोड़ी देर और बैठो तुम 
मेरे जीवन की आशा बन ,
थोड़ी देर और बैठो तुम !
सब आते जाते रहते हैं ,
भव नदिया में सब बहते हैं,
जीवन में अपनी पीड़ा को-
सब रोते हैं,सब कहते हैं!
मेरे गीतों की भाषा बन ,
थोड़ी देर और बैठो तुम !
इतनी भीड़ कहाँ होती है ,
अपना दोष नहीं धोती है,
चलते फिरतों की आंखें भी-
नम होती हैं औ रोटी हैं !!
मेरी प्यासी अभिलाषा बन ,
थोड़ी देर और बैठो तुम !
होता कौन यहाँ अपना है ,
अपनापन केवल सपना है ,
नींद नहीं जाने क्यों आती?
किस आशा में फिर जगना है?
मेरे प्राणों  की श्वांसा  बन ,
थोड़ी देर और बैठो तुम !!   


                 ओमप्रकाश  ' अडिग'               { संकुल}


    

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